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#नारायण #बलि क्यों और कैसे करें ? #Narayan #Bali Kyo aur kaise kare ?

नारायण बलि क्यों और कैसे करें ?

( ” प्रेतत्व को प्राप्त आत्माओं को सद्गति एवं मुक्ति प्रदान करने का एक सहज सरल उपाय ) 


नारायण बलिका विधान तब किया जाता है , जब कोई ज्ञात मृतक आत्मा को प्रेतत्व से मुक्ति दिलानी हो ! ज्ञात मृतक आत्मा का अर्थ है , जिसका नाम और गोत्र पता हो तथा उसके मृत्यु का कारण पता हो ! इसके अतिरिक्त जो मृतक आत्मा स्वप्न के माध्यम से बार-2 दर्शन देकर अपने मुक्ति के लिए प्रार्थना करती हो , अथवा जो स्वप्न में कष्ट में होने का संकेत देती हो , उसके निमित्त भी नारायण बलि का विधान बताया गया है ! 


नारायण बलि का अर्थ है की , किसी प्रेतत्व को प्राप्त ज्ञात आत्मा के निमित्त भगवान नारायण एवं उनके गण , पार्षद आदि का आवाहन , पूजन और तर्पण करना तथा उस आत्मा की मुक्ति अथवा सद्गति की प्रार्थना करना ! एक प्रकार से नारायण बलि के कर्मकांड से उस प्रेतात्मा को भगवान नारायण के चरणों में समर्पित कर देना , भगवान नारायण को बलि के रूप में प्रदान करने को नारायण बलि कहते है !

जिस आत्मा नाम , गोत्र पता हो , उसे ज्ञात मृतक आत्मा कहते है ! उनके निमित नारायण बलि , पार्वण श्राद्ध आदि किये जाते है !


यदि किसी आत्मा का अथवा हमारे अपने पूर्वजों का नाम और गोत्र पता न हो तो उनके निमित्त , उनके उध्दार अथवा तृप्ति के लिए त्रिपिंडी श्राध्दआदि किये जाते है ! भगवान विष्णु , भगवान ब्रह्मा , भगवान शंकर के निमित्त तीन पिंड बनाकर उनका पूजन कर , उनके निमित्त तर्पण आदि कर सभी प्रकार की दुर्गति को प्राप्त पूर्वजों की आत्माओं की सद्गति, उनके उध्दार के लिए प्रार्थना की जाती है , इसलिए इस कर्म को त्रिपिंडी श्राध्द अर्थान तीन पिंड बनाकर किया गया श्राध्द कर्म कहा जाता है !!


जैसे त्रिपिंडी श्राद्धका महत्त्व है , उसी प्रकार से नारायण बलि का भी महत्त्व है ! जिसे भी अपने ज्ञात अथवा अज्ञात पूर्वजों की सद्गति करनी हो , उनको प्रेतत्व से मुक्त करना हो , उनके निमित नारायण बलि , त्रिपिंडी श्राध्द आदि कर्म करना चाहिए ! प्रत्येक गृहस्थ को अपने घर परिवार में सुख शांति हेतु यह कर्म कराना चाहिए !


अचानक संतान कुमार्गगामी बन जाय , धन आदि की आवक रुक जाय , घर में रोग के इलाज में अधिक धन खर्च होने लगे , कन्या के विवाह में बाधा आ रही हो , पति-पत्नी में क्लेश और झगड़ें का अनायास वातावरण बनने लगेअज्ञात रोग होने लगे , घर में अशांति और क्लेश का वातावरण बनें तो उन्हें श्राद्ध कर्म करना चाहिए ! 


वैसे भी किसी भी शुभ कर्म करने के पूर्व नांदी मुख श्राद्ध आदि करने का विधान शास्त्र में वर्णित है ! अतः श्राद्ध- तर्पण की क्रियाओं को जीवन का अभिन्न अंग मान लेना चाहिए और उसका पालन करना चाहिए ! एकक सुखी गृहस्थ जीवन जीने के लिए यह भी आवश्यक कर्तव्य कर्म है ! 

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! 

–  स्वामी रुपेश्वरानंद 


प्रेत योनी को प्राप्त हुए पूर्वजों के उद्धार के लिए नारायण बलि का प्रयोग करना श्रेष्ठ उपाय है ! 

#त्रिपिंडी #श्राध्द कैसे और क्यों कराएँ ? #TRIPINDI #SHRADHDA kyo aur kaise kare ?

त्रिपिंडी श्राध्द” क्यों और कैसे करें ?

( ” प्रेतत्व ” को प्राप्त आत्माओं को सद्गति एवं मुक्ति प्रदान करने का एक सहज – सरल उपाय )


श्राद्ध – तर्पण क्यों करें ?

प्रत्येक मनुष्य के पितृ देवता होते ही है ! माता-पिता विद्यमान हो तब भी माता-पिता के भी “मृतक पूर्वज” भी पितृ देवता ही है ! अतः पितृ देवताओं की प्रसन्नता के लिए श्राध्द एवं तर्पण की क्रियाएँ करनी ही चाहिए ! इसके अतिरिक नित्य तर्पण में यदि संभव हो तो देव तर्पण , ऋषि तर्पण आदि भी करना चाहिए !  

मृतक पूर्वजों का अंतिम संस्कार ठीक नही हुआ तो उनको “ प्रेत योनी ” प्राप्त होती है ! पितरों के निमित्त श्राध्द – तर्पण न करें , तब भी “ पितृदोष” उत्पन्न होता है ! श्राध्द -तर्पण की क्रियाएँ भी विधिवत न हुई हो तो भी पितृदोष उत्पन्न होता है ! पितृदोष का दुष्परिणाम अत्यंत कष्टकारक होता है ! अचानक विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होना , घर में क्लेश बना रहना , संतान कुमार्गगामी हो जाना , विवाह की आयु होने पर भी संतान का विवाह न होना अचानक दुर्घटनाए होना , आवक अच्छी होने पर भी घर में घन और धान्य की कमी रहना आदि अनेक दोष इसी पितृदोष के कारण उत्पन्न होते है ! प्रेतबाधा होना भी पितृदोष का ही दुष्परिणाम होता है ! अतृप्त पूर्वज प्रेतयोनी की अधोगति को प्राप्त हो जाते है और अपने वंशजों को कष्ट पहुचातें है !  अतः पितृओ के निमित्त श्राध्द – तर्पण करना प्रत्येक गृहस्थ का दायित्व और कर्त्तव्य है ! इस कर्तव्य से विमुख गृहस्थ अपने गृहस्थ जीवन में कष्ट पाता ही है ! मैंने अपने जीवन में अनेक पीड़ितों के जीवन में यह सब प्रत्यक्ष अनुभव किया है !

पितृ देवता यदि प्रसन्न हो तो वे कुल की रक्षा करते है , सूक्ष्म रूप से उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है , संतान सन्मार्गी बनी रहती है,  घर में धन -धान्य की वृध्दि बनी रहती है ! 

श्राद्ध – तर्पण का अधिकार किसे है ? 

कुल परिवार से जुड़ें हुए अथवा आत्माओं के उध्दार की कामना रख्नेवालें किसी भी व्यक्ति को नित्य श्राध्द -तर्पण करने का अधिकार है ! परन्तु मुख्य रूप से घर के मुख्य व्यक्ति को यह पितृ कर्म करना चाहियें ! यदि मुख्य व्यक्ति अपने कर्त्तव्य से भ्रष्ट हो जाता है , वह यदि श्राद्ध तर्पण नही करता है तो परिवार के किसी भी अन्य व्यक्ति को भी श्राध्द – तर्पण करने का अधिकार प्राप्त है ! किसी भी आत्मा की सद्गति के लिए श्राध्द आदि कर्म करना एक पवित्र और पुण्य कर्म है ! अतः यह अधिकार सभी को प्राप्त है ! अपने माता पक्ष के मामा नानी  आदि के लिए भी श्राद्ध कर उनका उध्दार कर सकते है दामाद आदि भी अपने ससुर का उध्दार कर सकता है ! शास्त्रों में इसका वर्णन है और तर्क आदि से भी यह सिद्ध है !

त्रिपिंडी श्राद्ध किसके लिए करें ?

त्रिपिंडी श्राध्द में समस्त पितृओ के निमित्त श्राध्द किया जाता है! जिनका गोत्र अथवा नाम आदि का पता न हो उनके लिए भी ” त्रिपिंडी श्राद्ध ” का विधान है ! वर्ष में एक बार त्रिपिंडी श्राध्द करना चाहिए ! प्रत्येक अमावस्या को भी यह श्राद्ध कर सकते है ! संभव हो तो तीर्थस्थल पर ही “ त्रिपिंडी श्राद्ध “ करें !  इस प्रकार के आचरण करनेवाला गृहस्थ अपने पितृओं का आशीर्वाद प्राप्त कर सुख और शांति का जीवन जीता है ! 

क्यों करें त्रिपिंडी श्राद्ध ? 

त्रिपिंडी श्राद्ध काम्‍य श्राध्द है। लगातार तीन वर्ष तक जिनका श्राध्द न किया गया होउनको प्रेतत्‍व प्राप्त होता है। अमावस्या पितरों की तिथि है। इस दिन त्रिपिंडी श्राध्द करें। प्रेतयोनियो को प्राप्त पितृओ की पीडा के निवारण हेतु त्रिपिंडी श्राध्द किया जाता है। अनेक वर्ष तक पितरों का विधी पूर्वक श्राध्द न होने से पितरों को प्रेतत्व प्राप्त होता है।  श्राध्द न करने से होनेवाले दोष त्रिपिंडी श्राध्द से समाप्त होते है। जैसे भूतबाधा,प्रेतबाधा,गंधर्वराक्षसशाकिनी आदि दोष दूर करने के लिए त्रिपिंडी श्राध्द करने की प्रथा हैघर में कलहअशांती,बिमारी,अपयश,अकाल मृत्यु , विवाह समय पर न होना,संतान न होना इस सब को “पितृ दोष” कहा जाता है। इन दोषों के निवारण के लिए “त्रिपिंडी श्राध्द” किया जाता है ! यह पुजा सभी अतृप्त आत्माओंके मोक्ष प्राप्ती के लिए की जाती है। 

आश्रम की ओर से शास्त्रीय पध्दति से और विद्वतजनों के द्वारा ” त्रिपिंडी श्राद्ध ” की व्यवस्था वाराणसी अथवा हरिद्वार जैसे तीर्थस्थल पर करा दी जाती है !

पंजीकरण हेतु आश्रम की वेबसाईट देखें !

https://swamirupeshwaranand.in/

सुचना : श्राद्ध के समय श्राद्धकर्ता उपस्थित न हो सकें तो गोत्रमाता -पिता का नाम आदि का संकल्प में  उल्लेख कर भी विद्वतजन यह कर्म कर सकते है ! हमारे अनुभव में इसी प्रकार से श्राद्ध कर्म करने से भी अनेक श्रध्दालुओं के सुखद अनुभव आये है !

त्रिपिंडी श्राध्द : 11000 /- Rs. ( पूजन सामग्री और पुरोहित दक्षिणा सहित )

दिनांक : 17/09/2024 से 02/10/2024

महत्वपूर्ण सुचना :  नारायण बलि कर्मकांड हरिद्वार/ वाराणसी में स्वामी रुपेश्वरानंद आश्रम की ओर से विद्वान पुरोहितों के माध्यम से कराया जाता है ! वर्तमान समय और परिस्थिति को देखते हुए यह कर्मकांड संकल्प आदि के माध्यम से किया जाता है यज्ञमान को इस कर्मकाण्ड में  प्रत्यक्ष भाग लेने की आवश्यकता नही होती है ! हमारे अनुभव में  इस प्रकार के पूजन से , संकल्प से दुर्गति अथवा प्रेत योनी को प्राप्त को आत्माओं की मुक्ति के यज्ञमानों द्वारा अनुभव प्रमाण सामने आये है ! अतः इस प्रकार से संकल्प द्वारा भी सद्गति होना अनुभवसिद्ध है ! इसलिये ऑनलाइन पंजीकरण से भी इस कर्मकाण्ड को किया जा रहा है ! इस विषय में जिनको शंका अथवा अश्रध्दा हो वे पंजीकरण न करें ! अश्रध्दा और शंका के भाव से किये गए कर्म का फल शुभ नही होता ! स्वामी रुपेश्वरानंद जी के मार्गदर्शन में किये जा रहे अनुष्ठान उपासनाकर्मकांड आदि से अनेक श्रध्दालुओं को लाभ हो रहे है और उसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी उपलब्ध है ! फिर भी आश्रम की ओर से किसी  को बाध्य नही किया जाता है और न ही  कोई गारंटी  दी जाती है ! केवल जिन्हें श्रध्दा हो वे भी पंजीकरण करें ! आश्रम की ओर से भी पूर्ण विश्वास और विधि से कर्मकाण्ड संपन्न कराये जाते है !  

श्री शिव पंचाक्षर मंत्र अनुष्ठान

 हे द्विजो! अब मैं जपयोगका वर्णन करता हूँ, आप सब लोग ध्यान देकर सुनें। तपस्या करनेवालेके लिये जपका उपदेश किया गया है; क्योंकि वह जप करते-करते अपने आपको सर्वथा शुद्ध (निष्पाप) कर लेता है। हे ब्राह्मणो! पहले ‘नमः’ पद हो, उसके बाद चतुर्थी विभक्तिमें ‘शिव’ शब्द हो, तो पंचतत्त्वात्मक ‘नमः शिवाय’ मन्त्र होता है। इसे ‘शिव-पंचाक्षर’ कहते हैं। यह स्थूल प्रणवरूप है। इस पंचाक्षरके जपसे ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियोंको प्राप्त कर लेता है। पंचाक्षरमन्त्रके आदिमें ओंकार लगाकर ही सदा उसका जप करना चाहिये। हे द्विजो! गुरुके मुखसे पंचाक्षरमन्त्रका उपदेश पाकर जहाँ सुखपूर्वक निवास किया जा सके, ऐसी उत्तम भूमिपर महीनेके पूर्वपक्ष (शुक्ल)-में प्रतिपदासे आरम्भ करके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीतक निरन्तर जप करता रहे। माघ और भादोंके महीने अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। यह समय सब समयोंसे उत्तमोत्तम माना गया है ⁠।⁠।⁠ ३२—३५ ⁠।⁠। साधकको चाहिये कि वह प्रतिदिन एक बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इन्द्रियोंको वशमें रखे, अपने स्वामी एवं माता-पिताकी नित्य सेवा करे। इस नियमसे रहकर जप करनेवाला पुरुष एक हजार जपसे ही शुद्ध हो जाता है, अन्यथा वह ऋणी होता है। भगवान् शिवका निरन्तर चिन्तन करते हुए पंचाक्षर-मन्त्रका पाँच लाख जप करे। [जपकालमें इस प्रकार ध्यान करे] कल्याणदाता भगवान् शिव कमलके आसनपर विराजमान हैं, उनका मस्तक श्रीगंगाजी तथा चन्द्रमाकी कलासे सुशोभित है, उनकी बायीं जाँघपर आदिशक्ति भगवती उमा बैठी हैं, वहाँ खड़े हुए बड़े-बड़े गण भगवान् शिवकी शोभा बढ़ा रहे हैं, महादेवजी अपने चार हाथोंमें मृगमुद्रा, टंक तथा वर एवं अभयकी मुद्राएँ धारण किये हुए हैं। इस प्रकार सदा सबपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् सदाशिवका बार-बार स्मरण करते हुए हृदय अथवा सूर्यमण्डलमें पहले उनकी मानसिक पूजा करके फिर पूर्वाभिमुख हो पूर्वोक्त पंचाक्षरी विद्याका जप करे। उन दिनों साधक सदा शुद्ध कर्म ही करे। जपकी समाप्तिके दिन कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको प्रातःकाल नित्यकर्म सम्पन्न करके शुद्ध एवं सुन्दर स्थानमें [शौच-संतोषादि] नियमोंसे युक्त होकर शुद्ध हृदयसे पंचाक्षर-मन्त्रका बारह हजार जप करे ⁠।⁠।⁠ ३६—४२ ⁠।⁠।

- श्री शिव पुराण , विद्येश्वर संहिता।

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